सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस पंकज मित्तल ने देशभर के विधि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में प्राचीन भारतीय न्यायिक और दार्शनिक विचारों को औपचारिक रूप से पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने का आह्वान किया है। उन्होंने कहा कि वेद, स्मृतियाँ, अर्थशास्त्र, मनुस्मृति, और रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्य केवल सांस्कृतिक धरोहर नहीं हैं, बल्कि न्याय, समानता, शासन, दंड, समाधान और नैतिक कर्तव्यों की गहन समझ प्रदान करते हैं। उन्होंने यह विचार भोपाल स्थित नेशनल लॉ इंस्टिट्यूट यूनिवर्सिटी (NLIU) द्वारा सुप्रीम कोर्ट की 75वीं वर्षगांठ पर आयोजित एक विधिक सम्मेलन में व्यक्त किए।
पाठ्यक्रम में प्राचीन न्यायिक दृष्टिकोण को जोड़ने की आवश्यकता
जस्टिस मित्तल ने कहा, “अब समय आ गया है कि हमारे लॉ स्कूल प्राचीन भारतीय विधिक और दार्शनिक परंपराओं को अपने पाठ्यक्रम में शामिल करें… इनमें न्याय, समानता, शासन और नैतिकता की गहरी दृष्टि निहित है।” उन्होंने सुझाव दिया कि इस विषय को “धर्म और भारतीय विधिक विचार” या “भारतीय विधिक दर्शन की नींव” नाम दिया जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि यह केवल ग्रंथों के अध्ययन तक सीमित न होकर, आधुनिक संवैधानिक मूल्यों और प्राचीन भारतीय विचारों के बीच एक सार्थक संबंध स्थापित करना चाहिए।
“भारतीय विधिक विचार” के लिए एक सांस्कृतिक दृष्टिकोण
उन्होंने कहा कि इस प्रकार का विषय छात्रों को सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से जड़ें मजबूत करने में मदद करेगा और उन्हें एक विशिष्ट भारतीय विधिक सोच की दिशा में प्रेरित करेगा। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा:
- संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता) को यदि “समत्वता” की दृष्टि से देखा जाए, तो यह केवल आयातित विचार नहीं रहेगा।
- पर्यावरण कानून को वेदों में वर्णित प्रकृति पूजन की भावना से जोड़ा जा सकता है।
- वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) को पंचायती परंपरा से जोड़ा जा सकता है, जैसा कि ग्रंथों और मनुस्मृति में वर्णित है।
“जड़ों से जुड़ा नवाचार” — अतीत में लौटना नहीं, बल्कि विकास की ओर एक कदम
जस्टिस मित्तल ने स्पष्ट किया कि यह किसी अतीत की ओर लौटने की कोशिश नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्यों को गहराई देने और भारतीय विधिक पहचान को मजबूत करने का प्रयास है। उन्होंने कहा, “यह सुधार भारत की बहुल विधिक पहचान को संरक्षित करने की संवैधानिक दिशा में एक कदम है। इससे यह भी स्पष्ट होगा कि भारतीय संवैधानिकता कोई विदेशी अवधारणा नहीं, बल्कि हमारे सभ्यतागत मूल्यों की जीवंत अभिव्यक्ति है।”
न्यायपालिका के भारतीयकरण की दिशा में कदम
उन्होंने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ द्वारा न्याय की देवी की भारतीय परिधान (साड़ी) में स्थापित प्रतिमा का उल्लेख किया, जो संविधान की पुस्तक थामे हैं और नेत्रबंध (blindfold) से मुक्त हैं — यह भी भारतीय सोच को दर्शाने का एक प्रयास है। उनका मानना है कि भारतीय न्याय परंपरा को दर्शाने वाले ग्रंथ जैसे गीता, वेद और पुराण भी उस किताब का हिस्सा हों जिसे देवी न्याय थामे हों — ताकि नैतिक और विधिक परंपराओं को समाहित किया जा सके।
धर्म और न्याय का गहरा संबंध
न्यायपालिका के विकास पर बोलते हुए जस्टिस मित्तल ने कहा कि भारत में न्याय की परंपरा संविधान लागू होने (1950) से भी पहले की है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के आदर्श वाक्य “यतो धर्मस्ततो जयः” का उल्लेख किया, जो महाभारत से लिया गया है और दर्शाता है कि भारत में धर्म ही न्याय का स्वरूप है — जिसमें नैतिक आचरण, सामाजिक उत्तरदायित्व और विवेकपूर्ण शक्ति-प्रयोग निहित है। उन्होंने यह भी कहा कि न्यायपालिका को कार्यपालिका की तात्कालिक आवश्यकताओं की तुलना में संविधान की नैतिकता को प्राथमिकता देनी चाहिए।
भारतीय न्याय में धर्म और कानून का एकात्म स्वरूप
अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा कि प्राचीन भारतीय विधिक दृष्टिकोण में “धर्म” केवल कानून से कहीं व्यापक अवधारणा है। जहाँ पश्चिमी विधिक परंपराएँ कानून और नैतिकता को अलग मानती हैं, वहीं भारतीय दर्शन में दोनों आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं। उन्होंने कहा, “हमारे सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले इस एकता — कानून और नैतिकता के समन्वय — को दर्शाते हैं।”